Natasha

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राजा की रानी

अभया देर तक स्थिर रहकर धीरे से बोली, “आपकी बात समझती हूँ श्रीकान्त बाबू! अन्नदा जीजी, राजलक्ष्मी- इन दोनों ने जीवन में दु:ख को ही सम्बल रूप से प्राप्त किया है। किन्तु, मेरे हाथ तो वह भी नहीं। पति के समीप मैंने पाया है केवल अपमान। केवल लांछना और ग्लानि लेकर ही मैं लौट आई हूँ। इस मूल-धन को लेकर ही क्या आप मुझे जीवित रहने के लिए कहते हैं?”


सवाल बड़ा ही कठिन है। मुझे निरुत्तर देखकर अभया फिर बोली, “इनके साथ मेरे जीवन का कहीं भी मेल नहीं है श्रीकान्त बाबू। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक साँचे में ढले नहीं होते, उनके सार्थक होने का रास्ता भी जीवन में केवल एक नहीं होता। उनकी शिक्षा, उनकी प्रवृत्ति और मन की गति एक ही दिशा में चलकर उन्हें सफल नहीं बना सकती। इसीलिए, समाज में उनकी व्यवस्था रहना उचित है। मेरे जीवन पर ही आप एक दफे अच्छी तरह शुरू से आखिर तक नजर डाल जाइए। मेरे साथ जिनका विवाह हुआ था उनके समीप आए बिना कोई उपाय नहीं था और आने पर भी कोई उपाय नहीं हुआ। इस समय उनकी स्त्री, उनके बाल-बच्चे, उनका प्रेम, कुछ भी मेरा खुद का नहीं है। इतने पर भी उन्हीं के समीप उनकी एक रखेल वेश्या की तरह पड़े रहने से ही क्या मेरा जीवन फल-फूलों से लदकर सफल हो उठता श्रीकान्त बाबू? और उस निष्फलता के दु:ख को लादे हुए सारे जीवन भटकते फिरना ही क्या मेरे नारी जीवन की सबसे बड़ी साधना है? रोहिणी बाबू को तो आप देख ही गये हैं। उनका प्यार तो आपकी दृष्टि से ओझल है नहीं। ऐसे मनुष्य के सारे जीवन को लँगड़ा बनाकर मैं 'सती' का खिताब नहीं खरीदना चाहती श्रीकान्त बाबू।”

हाथ उठाकर अभया ने ऑंखों के कोने पोंछ डाले और फिर रुँधे हुए कण्ठ से कहा, “न कुछ एक रात्रि के विवाह-अनुष्ठान को, जो कि पति-पत्नी दोनों के ही निकट स्वप्न की तरह मिथ्या हो गया है, जबर्दस्ती जीवन-भर 'सत्य' कहकर खड़ा रखने के लिए इतने बड़े प्रेम को क्या मैं बिल्कुसल ही व्यर्थ कर दूँ? जिन विधाता ने प्रेम की यह देन दी है, वे क्या इसी से खुश होंगे? मेरे विषय में आपकी जो इच्छा हो वही धारणा कर लें; मेरी भावी सन्तान को भी आप जो चाहें सो कहकर पुकारें, किन्तु जीती रहूँगी श्रीकान्त बाबू, तो मैं निश्चयपूर्वक कहे रखती हूँ कि हमारे निष्पाप प्रेम की सन्तान संसार में मनुष्य के लिहाज से किसी से भी हीन न होगी और मेरे गर्भ से जन्म ग्रहण करने को वह अपना दुर्भाग्य कभी न समझेगी। उसे दे जाने लायक वस्तु उसके माँ-बाप के समीप शायद कुछ न होगी; किन्तु, उसकी माता उसको यह भरोसा अवश्य दे जायेगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है, सत्य से बढ़कर सहारा उसके लिए संसार में और कुछ नहीं है। इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा- ऐसा होने पर वह बिल्कुछल ही तुच्छ हो जाँयगी।”

अभया चुप हो रही, किन्तु सारा आकाश मानो मेरी ऑंखों के सामने काँपने लगा, मुहूर्त-भर के लिए मुझे भास हुआ कि इस स्त्री के मुँह की बातें मानो मूर्त्त रूप धारण करके बाहर हम दोनों को घेर कर खड़ी हो गयी हैं। हाँ, ऐसा ही मालूम हुआ। सत्य जब सचमुच ही मनुष्य के हृदय से निकलकर सम्मुख उपस्थित हो जाता है तब मालूम होता है कि वह सजीव है- मानों उसके रक्त-मांसयुक्त शरीर है और मानो उसके भीतर प्राण भी है- 'नहीं' कहकर अस्वीकार करने पर मानो वह चोट करके कहेगा, “चुप रहो, मिथ्या तर्क करके अन्याय की सृष्टि मत करो!”

सहसा अभया एक सीधा प्रश्न कर बैठी; बोली, “आप स्वयं भी क्या हमें अश्रद्धा की नजर से देखेंगे श्रीकान्त बाबू? और अब क्या हमारे घर न आवेंगे?”

उत्तर देते हुए मुझे कुछ देर इधर-उधर करना पड़ा। इसके बाद मैं बोला, अन्तर्यामी के समीप तो शायद आप निष्पाप हैं- वे आपका कल्याण ही करेंगे; किन्तु, मनुष्य तो मनुष्य का अन्तस्तल नहीं देख सकते- उनके लिए तो प्रत्येक के हृदय का अनुभव करके विचार करना सम्भव नहीं है। यदि वे प्रत्येक के लिए अलहदा नियम गढ़ने लगें तो उनके समाज की सबकी सब कार्य-श्रृंखला ही टूट जाय।”

अभया कातर होकर बोली, “जिस धर्म में- जिस समाज में हम लोगों को उठा लेने योग्य उदारता है-स्थान है- क्या आप हम लोगों से उसी समाज में आश्रय ग्रहण करने के लिए कहते हैं?”

इसका क्या जवाब दूँ, मैं सोच ही न सका।

अभया बोली, “अपने आदमी होकर भी अपने ही आदमी को आप संकट के समय आश्रय नहीं दे सकते? उस आश्रय की भीख माँगनी होगी हमें दूसरों के निकट? उससे क्या गौरव बढ़ता है श्रीकान्त बाबू?”

प्रत्युत्तर में केवल एक दीर्घश्वास के सिवाय और कुछ मुँह से बाहर नहीं निकला।

अभया स्वयं भी कुछ देर मौन रहकर बोली, “जाने दीजिए। आप लोगों ने जगह नहीं दी, न सही, मुझे सान्त्वना यही है कि जगत में आज भी एक बड़ी जाति है जो खुले तौर पर स्वच्छन्दता से स्थान दे सकती है।”

उसकी बात से कुछ आहत होकर बोला, “क्या हर हालत में आश्रय देना ही भला काम है, यह मान लेना चाहिए?”

अभया बोली, “इसका प्रमाण तो हाथों-हाथ मिल रहा है श्रीकान्त बाबू। पृथ्वी में कोई अन्याय-कार्य अधिक दिन तक नहीं फल-फूल सकता, यह बात यदि सत्य है तो क्या यह कहना पड़ेगा कि इसीलिए वे अन्याय को आश्रय देते हुए दिनों दिन ऊँचे बढ़ रहे हैं, और हम लोग न्याय-धर्म को आश्रय देकर प्रतिदिन क्षुद्र और तुच्छ होते जा रहे हैं? हम लोग तो यहाँ कुछ ही दिन हुए आए हैं, परन्तु, इतने दिनों में ही देखती हूँ कि मुसलमानों से यह सारा देश छाया जा रहा है। सुनती हूँ, ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ कम-से-कम एक घर मुसलमान का न हो और जहाँ पर एकाध मस्जिद तैयार न हो गयी हो। हम लोग शायद अपनी ऑंखों न देख जा सकें; किन्तु, ऐसा दिन शीघ्र ही आवेगा जिस दिन हमारे देश की तरह यह बर्मा देश मुसलमान-प्रधान देश बन जाएगा। आज सुबह ही जहाज-घाट पर एक अन्याय देखकर आपका मन खराब हो गया है। आप ही कहिए, किस मुसलमान बड़े भाई को धर्म और समाज के भय से ऐसे षडयन्त्र का- ऐसी नीचता का आसरा लेकर सुख-चैन की ऐसी गिरस्ती राख में मिलाकर भाग जाने की जरूरत पड़ती? बल्कि इससे उलटा, वह तो सभी को अपने दल में खींच लेकर आशीर्वाद देता और बड़े भाई के योग्य सम्मान और मर्यादा ग्रहण कर लौट जाता। इन दोनों में से किससे सच्चा धर्म बना रहता है श्रीकान्त बाबू?”

मैंने गहरी श्रद्धा से भरकर पूछा, “अच्छा, आप तो गँवई-गाँव की कन्या हैं, आपने ये सब बातें किस तरह जानीं? मैं तो नहीं समझता कि इतने प्रशस्त-हृदय हम पुरुषों में भी अधिक हैं। आप जिनकी माता होंगी वह अभागी हो सकती है, इसकी कम-से-कम मैं तो किसी तरह कल्पना नहीं कर सकता।”

अभया अपने म्लान मुख पर जरा-सा हँसी का आभास लाकर बोली, “तो फिर श्रीकान्त बाबू, मुझे समाज से बाहर कर देने से ही क्या हिन्दू समाज अधिक पवित्र हो उठेगा? इससे क्या किसी ओर से भी समाज को नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा?”

कुछ देर स्थिर रहकर और फिर कुछ जरा-सा हँसकर कहा, “किन्तु मैं किसी तरह भी समाज के बाहर न होऊँगी; सारा अपयश, सारा कलंक, सारा दुर्भाग्य अपने सिर पर लेकर हमेशा आप लोगों की ही होकर रहूँगी। अपनी एक सन्तान को भी यदि किसी दिन मनुष्य की तरह मनुष्य बनाकर खड़ा कर सकूँ, तो मेरा यह सारा दु:ख सार्थक हो जाए- बस यही आशा लेकर मैं जीऊँगी। मुझे परीक्षा करके देखना होगा कि सचमुच का मनुष्य ही मनुष्यों में बड़ा है या उसके जन्म का हिसाब ही संसार में बड़ा है।”
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